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कविता

साहस

अंकिता रासुरी


बहुत आसान है पहाड़ की वादियों में थिरकती किसी सुंदरी को
गढ़ना अपनी कल्पनाओं में
पेंटिंग्स या कविताओं मे रचते हुए
उसमें स्वयं को बिसरा लेना
पर क्या कोई रच पाया है अपने एहसासों में
मुझ जैसी स्त्रियों को जिनकी देह लगती है किसी सूखे पेड़ का अवशेष
हफ्तों बिना कंघी तेल के बाल लगते हैं
मानो कभी सुलझे ही न हों
जिनके हाथों का खुरदुरापन लगता हो किसी सूखे खेत का प्रतिरूप
और खेतों की धूल मिट्टी जिनके हाथों को ही मटमैला कर गई है
घास लकड़ी का गट्ठर लिए घंटों चली करती हैं अक्सर
नंगे पाँव भी झुलसते हुए सिसकते हुए
इतनी भी फुर्सत नहीं कि सहला सकें अपने जख्मों को बैठकर
और व्यस्त हैं ऐसे कार्यों में जिनका कोई सम्मान भी नहीं करता
ये सब हमने अपने लिए नहीं
उनके लिए किया है जिनको दिखती है
मेरी देह की कुरूपता
हमारी तपस्या नहीं
क्या तुम में अब भी साहस है कर सको एक ऐसी स्त्री से प्रेम
जो अब तुम्हारे सामने है इस बदले हुए रूप के साथ


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